Friday, February 21, 2014

२१ फरबरी २०१४ शुक्रवार
आज की कविता
डॉ प्रमोद कुमार दीक्षित
अकेला असहाय एकाकी वृद्ध
सोचता हे क्यों जी रहा हूँ में 
किसी को वक़्त नहीं उसके लिए
किसी को दर्द नहीं उसके लिए
स्मृतियों से भरी धुंधली दृष्टि
उभरते मिट ते चेहरे
झुर्रियों में ग़र्क़ यादें
बेहद प्यारे लोगों की
घर गृहस्थी में डूबे बच्चे.
होमवर्क से दबे नाती पोते
कहा है उसका वजूद?
वो सोचता तो है तो
अस्तित्व भी हाना चाहिए
पर कैसा है ये अस्तित्व ?
पढ़ नहीं सकता ..देख नहीं सकता
चल नहीं सकता ..सुन नहीं सकता
बस याद कर सकता है
कितने प्यारी और भयानक है ये यादें !
प्रतीक्षा है उसे उस हाथ की
जो उबार ले उसको
बुला ले उसको अपने पास
क्योकि इस से किसी को कोई
फर्क कहा पड़ेगा?
एक कमरा खाली हो जायेगा
बच्चो का सामन बिखरा रहता है
ठीक से जम जायेगा !

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