Thursday, March 20, 2014

२० मार्च २०१४ आज की कविता एवं मेरा सार्वजानिक अनुभव
डॉ प्रमोद कुमार दीक्षित ----------------ये मेरे बचपन की बात है
सुना था कि कोई महबबूबा होती है
जिसके आने से बहार आ जाती है
कलियाँ खिल जाती हें 
मौसम की कीमत बढ़ जाती है
घुंघरू बजने लगते हें
फूल महक उठते हें
कम से कम फ़िल्मी गाने सुन कर
ऐसा ही लगता था
दिन रात सोचता था कि
कैसी होगी ,ऐसी होगी
चांदी जैसा रंग सोने जैसे बाल
लजाते गुलाबी गाल
यार कितना रोमांटिक था
मेरा बचपन का ख्वाब !
कब मिलेगी ?कब मिलेगी?
सोचते सोचते बड़ा हुआ
मेरे सपने सच होते है
तो ये भी होना ही था
पर एक परी थी ख्वाब में
जो अभी भी आती है
गुलाबी पंखो वाली
मुझसे बातें करती है
और मेरी उम्र नहीं बढ़ने देती !

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